बिहार की राजनीति में मधेपुरा जिले की आलमनगर विधानसभा सीट (निर्वाचन क्षेत्र संख्या 70) का अपना अलग महत्व है। कभी कांग्रेस का गढ़ कही जाने वाली यह सीट बीते तीन दशकों से जनता दल यूनाइटेड (JDU) के नियंत्रण में है। यहां की राजनीति पर लगातार सात बार से विधायक बन रहे नरेंद्र नारायण यादव का दबदबा रहा है, जिनका नाम राज्य की सत्ता की दावेदारी तक में शामिल हो चुका है।
चुनावी इतिहास
आलमनगर का चुनावी इतिहास बेहद दिलचस्प रहा है। 1951 के पहले चुनाव में तनुक लाल यादव ने गैर-कांग्रेसी चेहरा बनकर जीत हासिल की थी, लेकिन इसके बाद कांग्रेस ने लगातार पांच बार जीत दर्ज कर अपनी पकड़ मजबूत कर ली। 1977 में कांग्रेस का किला ढहाते हुए वीरेंद्र कुमार सिंह विजयी हुए और 1990 तक इस सीट पर प्रभावशाली बने रहे। 1995 में नरेंद्र नारायण यादव के उदय के साथ आलमनगर की राजनीति ने नया मोड़ लिया और तब से यह सीट जेडीयू के खाते में सुरक्षित मानी जाती है।
नरेंद्र नारायण यादव की राजनीतिक यात्रा भी इस सीट की अहमियत को दर्शाती है। नीतीश कुमार के इस्तीफे के बाद 2014 में जब नए मुख्यमंत्री के नाम पर चर्चा हुई, तो उनका नाम भी रेस में शामिल था। मंत्री पद पर रहते हुए उन्होंने ग्रामीण विकास विभाग से लेकर कई अहम जिम्मेदारियां निभाईं और स्थानीय स्तर पर मजबूत पकड़ बनाई। 2020 के विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने राजद प्रत्याशी नवीन निषाद को 28,680 वोटों के भारी अंतर से हराकर लगातार सातवीं बार जीत दर्ज की।
जातीय समीकरण
आलमनगर सीट का चुनावी समीकरण जातीय आधार पर टिका है। यहां यादव और मुस्लिम समुदाय निर्णायक भूमिका निभाते हैं, जबकि राजपूत, ब्राह्मण, कोइरी, कुर्मी, रविदास और पासवान मतदाता भी चुनावी तस्वीर तय करते हैं। पुरुष मतदाताओं की संख्या महिलाओं की तुलना में अधिक है, जहां 52.34 फीसदी पुरुष और 47.66 फीसदी महिला वोटर हैं। यही वजह है कि हर दल की रणनीति यादव-मुस्लिम समीकरण को साधने के साथ-साथ अन्य जातीय वर्गों को जोड़ने पर केंद्रित रहती है। अब बड़ा सवाल यह है कि क्या आगामी चुनावों में आलमनगर में जेडीयू का किला बरकरार रहेगा या विपक्षी दल कोई नई सेंध लगाने में कामयाब होंगे।






















