Barhara Vidhan Sabha 2025: बिहार की राजनीति में भोजपुर जिले की बड़हरा विधानसभा सीट हमेशा से दिलचस्प मुकाबलों और जातीय समीकरणों की वजह से सुर्खियों में रही है। आरा लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली यह सीट कभी एक ही परिवार—पिता और पुत्र—के कब्जे में रही, तो कभी यहां से एनडीए और महागठबंधन ने बारी-बारी से अपना वर्चस्व साबित किया। बदलते राजनीतिक हालात और जातीय गणित ने इस सीट को राज्य की राजनीति में खास बना दिया है।
चुनावी इतिहास
1967 में कांग्रेस के अंबिका शरण सिंह ने यहां से जीत दर्ज की थी और उसके बाद उनके बेटे ने भी लंबे समय तक इस सीट पर पकड़ बनाए रखी। 2005 में जदयू ने पहली बार यहां पर कब्जा जमाया, लेकिन इसके बाद का सफर राजद और भाजपा के बीच टकराव का गवाह रहा। 2015 में राजद के सरोज यादव ने बढ़त बनाई, जबकि 2020 में भाजपा के राघवेंद्र प्रताप सिंह ने कांटे की टक्कर में राजद को मात दी। उन्होंने सरोज यादव को 4973 वोटों के अंतर से हराते हुए 76182 वोट हासिल किए, जबकि यादव को 71209 मत मिले।
जातीय समीकरण
जातीय समीकरण यहां के चुनावी परिणामों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। यादव समुदाय करीब 12% है और पारंपरिक रूप से राजद के साथ जुड़ा रहा है। कोइरी यानी कुशवाहा (7%) और राजपूत (5.5%) भाजपा के मजबूत आधार माने जाते हैं। वहीं निषाद (0.82%) जैसे छोटे लेकिन प्रभावशाली समुदाय महागठबंधन को सहारा देते हैं। ब्राह्मण (5.5%) और भूमिहार (6%) सवर्ण वर्ग के तौर पर भाजपा के लिए महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं। दूसरी ओर दलित समुदाय, जिसकी आबादी करीब 15% है, महागठबंधन के समीकरण को मजबूत करता है।
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बड़हरा का चुनावी इतिहास बताता है कि यहां जीत केवल विकास के वादों या पार्टी की लोकप्रियता से तय नहीं होती, बल्कि जातीय समीकरण और उम्मीदवार की व्यक्तिगत छवि भी उतनी ही अहम भूमिका निभाती है। भाजपा और राजद के बीच यहां सीधा मुकाबला देखने को मिलता है, जबकि जदयू और कांग्रेस जैसी पार्टियां यहां समीकरण बिगाड़ने का काम करती रही हैं।
आगामी विधानसभा चुनाव में भी बड़हरा सीट पर वही सवाल खड़ा होगा—क्या जातीय गणित भाजपा को दोबारा फायदा दिलाएगा, या राजद अपने पारंपरिक वोट बैंक के सहारे खोया हुआ गढ़ वापस हासिल कर पाएगा। यहां के मतदाता फिलहाल खामोश हैं, लेकिन राजनीतिक हलकों में बड़हरा विधानसभा का समीकरण पूरे बिहार की राजनीति को दिशा देने वाला माना जा रहा है।