Bihar Election 2025: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का ऐलान होते ही राजनीति का पारा चढ़ गया है। इस बार का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक है, क्योंकि 40 साल बाद बिहार में दो चरणों में मतदान होने जा रहा है। 6 और 11 नवंबर को वोटिंग होगी और 14 नवंबर को यह तय होगा कि पटना के राजपथ से लेकर दिल्ली की गलियों तक सियासी हवा किस दिशा में बहेगी। लेकिन इस बार मुकाबला सिर्फ एनडीए बनाम महागठबंधन तक सीमित नहीं है। यह लड़ाई चाचा-भतीजे, केंद्र बनाम राज्य और जनता बनाम सियासी दांव के बीच सिमटती दिख रही है।
बिहार का फैसला, दिल्ली की राजनीति पर असर
यह चुनाव केवल एक राज्य की सत्ता के लिए नहीं है, बल्कि इसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ेगा। “ऑपरेशन सिंदूर”, “वोट चोरी” और “जीएसटी राहत” जैसे मुद्दों के बीच जनता का रुख यह तय करेगा कि 2029 के लोकसभा चुनाव की रणनीति किस दिशा में जाएगी। एनडीए के लिए यह चुनाव स्थिरता की परीक्षा है, जबकि इंडिया गठबंधन के लिए यह अस्तित्व का सवाल बन गया है। 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद एनडीए ने जहां महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली में जीत दर्ज की थी, वहीं विपक्षी इंडिया गठबंधन ने जम्मू-कश्मीर और झारखंड में सफलता पाई थी। अब सबकी नजरें बिहार पर हैं, जहां नतीजे कई सियासी करियर का भविष्य तय करेंगे।
नीतीश कुमार: सत्ता की परीक्षा और दसवीं बार सीएम बनने की चुनौती
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए यह चुनाव निर्णायक है। अगर वह जीतते हैं, तो यह उनका दसवां कार्यकाल होगा। लेकिन एंटी-इंकंबेंसी, उम्र और स्वास्थ्य से जुड़े सवाल उनकी राह मुश्किल बना सकते हैं। तेजस्वी यादव लगातार नीतीश की सक्रियता पर सवाल उठा रहे हैं, और जनता यह तय करेगी कि नीतीश के अनुभव का पलड़ा भारी रहेगा या बदलाव की चाह मजबूत होगी।
तेजस्वी यादव बनाम नीतीश कुमार: चाचा-भतीजे की असली जंग
बिहार की राजनीति इस बार पूरी तरह “चाचा बनाम भतीजा” के इर्द-गिर्द घूम रही है। तेजस्वी यादव के सामने यह मौका है कि वह 20 साल बाद सत्ता में वापसी कर अपने पिता लालू प्रसाद यादव की विरासत को आगे बढ़ाएं। वहीं नीतीश कुमार, जिन्होंने कभी लालू परिवार की राजनीति को खत्म करने का अभियान चलाया था, अब उसी परिवार से दो-दो हाथ करने को तैयार हैं। इस चुनाव में उनके लिए सिर्फ जीत नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखना भी दांव पर है।
लालू परिवार की अंदरूनी जंग और महिला फैक्टर
लालू परिवार में फूट की खबरें इस चुनाव को और दिलचस्प बना रही हैं। तेज प्रताप यादव अपनी अलग पार्टी बनाकर मैदान में उतर चुके हैं, जबकि बहन रोहिणी आचार्य सोशल मीडिया पर भाई की रणनीति पर सवाल उठा रही हैं। ऐसे में महागठबंधन की एकता पर भी प्रश्नचिह्न है। वहीं महिला मतदाता इस बार निर्णायक भूमिका में हैं। बिहार में 3.49 करोड़ महिला मतदाता हैं, जिनमें से एक करोड़ से ज्यादा को नीतीश सरकार सीधे आर्थिक सहायता दे चुकी है। यही योजना अब विपक्ष के 2500 रुपये मासिक वादे की सबसे बड़ी काट मानी जा रही है।
प्रशांत किशोर, चिराग पासवान और ओवैसी: तीसरी-चौथी ताकत का समीकरण
प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी, चिराग पासवान की एलजेपी (राम विलास) और असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम — ये तीनों इस बार के चुनाव में एनडीए और महागठबंधन दोनों के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं। प्रशांत किशोर युवाओं और जागरूक वोटरों को “सिस्टम बदलने” के नाम पर आकर्षित कर रहे हैं, जबकि चिराग पासवान 2020 की तरह इस बार भी सीटों को लेकर दबाव बनाए हुए हैं। सीमांचल में ओवैसी की पार्टी मुस्लिम वोटों पर पकड़ बनाए रखने की कोशिश में है। अगर ये तीनों ताकतें वोटों का समीकरण बिगाड़ती हैं, तो कई सीटों पर नतीजे अप्रत्याशित हो सकते हैं।
क्यों अहम है ये चुनाव
यह चुनाव सिर्फ सरकार बदलने का नहीं, बल्कि सियासी संदेश देने का भी है। नीतीश, मोदी, तेजस्वी, राहुल, चिराग और प्रशांत किशोर – सभी के लिए यह परीक्षा है। बिहार की जनता इस बार सिर्फ स्थानीय मुद्दों पर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय विमर्श के आधार पर मतदान कर सकती है। यही वजह है कि 14 नवंबर को आने वाला फैसला 2029 के रोडमैप की झलक भी दे सकता है।






















