Goreyakothi Vidhansabha 2025: बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण और उम्मीदवारों का दबदबाबिहार विधानसभा की सिवान जिले में आने वाली गोरेयाकोठी सीट (निर्वाचन क्षेत्र संख्या-111) अपनी राजनीतिक जटिलताओं और जातीय समीकरणों की वजह से हमेशा सुर्खियों में रही है। यह सीट 2010 में बसंतपुर विधानसभा क्षेत्र के दो ब्लॉकों को मिलाकर अस्तित्व में आई। पहली बार हुए चुनाव में भाजपा के भुमेंद्र नारायण सिंह ने राजद के इंद्रदेव प्रसाद को शिकस्त दी और इस नई सीट का राजनीतिक सफर भाजपा के नाम से शुरू हुआ। लेकिन इसके बाद से यहां का राजनीतिक समीकरण कई बार बदला और जनता ने पार्टी से ज्यादा उम्मीदवार के नाम को तरजीह दी।
चुनावी इतिहास
2015 में इस क्षेत्र के मतदाताओं ने भाजपा को दरकिनार कर आरजेडी के सत्यदेव प्रसाद सिंह को भारी मतों से जिताया। इस चुनाव में उन्हें 70 हजार से अधिक वोट मिले जबकि भाजपा प्रत्याशी देवेशकांत सिंह करीब 63 हजार वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहे। इस दौरान जेडीयू और आरजेडी की गठबंधन राजनीति ने भी समीकरणों को बदला। हालांकि, 2020 के विधानसभा चुनाव में स्थिति पलट गई और भाजपा के देवेशकांत सिंह ने आरजेडी की नूतन वर्मा को लगभग 12 हजार वोटों से हराकर सीट वापस हासिल कर ली।
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गोरेयाकोठी विधानसभा का राजनीतिक इतिहास बताता है कि यहां के मतदाता किसी एक दल के प्रति स्थायी रूप से प्रतिबद्ध नहीं रहे हैं। जनता पार्टी से लेकर भाजपा, जेडीयू और आरजेडी तक, यहां उम्मीदवारों की व्यक्तिगत पहचान और उनकी स्थानीय पकड़ ही जीत-हार का आधार बनती रही है। यही वजह रही कि इंद्रदेव प्रसाद जैसे नेता, जिन्होंने कई बार दल बदले, जनता के बीच लोकप्रिय बने रहे और चुनावी सफलता पाते रहे।
जातीय समीकरण
जातीय समीकरण की बात करें तो यह सीट पूरी तरह ग्रामीण बहुल है और यहां यादव और मुस्लिम वोटर निर्णायक भूमिका निभाते हैं। यही वोट बैंक अब तक आरजेडी के पक्ष में जाता रहा है। इसके साथ ही भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत और अन्य जातियों की उपस्थिति भी चुनावी गणित में अहम मानी जाती है। महराजगंज लोकसभा क्षेत्र के तहत आने वाले गोरेयाकोठी विधानसभा की आबादी लगभग 4.57 लाख है, जिनमें से 10.84 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 1.3 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोग शामिल हैं।
इस सीट का इतिहास और वर्तमान परिदृश्य स्पष्ट करता है कि गोरेयाकोठी में जातीय गणित और उम्मीदवार की लोकप्रियता, दोनों ही आने वाले चुनावों में निर्णायक फैक्टर होंगे। 2025 का चुनाव यह साबित करेगा कि जनता एक बार फिर पार्टी के बजाय नेता के चेहरे को प्राथमिकता देती है या इस बार कोई नया राजनीतिक ट्रेंड उभरकर सामने आता है।






















