Bihar Vidhan Sabha: बिहार की 17वीं विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने जा रहा है और इसके साथ ही यह कई मामलों में रिकॉर्ड कायम कर रही है। जनता ने अपने प्रतिनिधियों को पूरे पांच साल यानी 1825 दिनों के लिए चुना था, लेकिन विधानसभा सत्रों का औसत बेहद कम रहा। आंकड़ों के अनुसार, पूरे कार्यकाल में विधायी कामकाज केवल 146 दिन हुआ, जबकि सत्र की कुल अवधि 265 दिन रही। यह स्थिति लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिहाज से गंभीर सवाल खड़े करती है कि जनता के मुद्दों पर प्रतिनिधियों ने कितना समय दिया।
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आजादी के बाद गठित पहली तीन विधानसभाओं की तुलना में मौजूदा विधानसभा का कामकाज आधे से भी कम रहा। खास बात यह है कि 17वीं विधानसभा में सरकार का स्वरूप दो बार बदला, जो अपने आप में एक ऐतिहासिक घटना है। सबसे चौंकाने वाला रिकॉर्ड 2022 में छठे सत्र के दौरान बना, जब 64 दिनों की सत्रावधि में केवल 7 दिन ही बैठकें हुईं। यह विधानसभा इतिहास का अभूतपूर्व आंकड़ा है।
इतिहास पर नजर डालें तो 1967-68 की विधानसभा में 94 दिन और 1969-71 में 123 दिन बैठक हुई थी। हालांकि, दोनों विधानसभाएं अपना पूरा कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं। इसके विपरीत 17वीं विधानसभा ने पांच साल तो पूरे किए, लेकिन कामकाज के लिहाज से इसे सबसे कम सक्रिय कहा जा सकता है।
बिहार विधानसभा के इतिहास में सात बार ऐसे मौके आए, जब सत्र केवल एक दिन के लिए बुलाए गए। इनमें 1972 में आजादी की 25वीं वर्षगांठ, 1975 में संविधान संशोधन पर अनुशंसा, 1990 में लालू प्रसाद का विश्वास प्रस्ताव, 1995 में महात्मा गांधी की 125वीं जयंती, 2013 और 2014 में विश्वास मत और 2020 में कोरोना महामारी के चलते ज्ञान भवन में आयोजित विशेष सत्र शामिल हैं।
नवंबर के अंतिम सप्ताह में 18वीं विधानसभा का गठन होगा और ऐसे में यह सवाल अहम हो जाता है कि क्या नई विधानसभा जनता के हितों और विधायी कार्यों के लिए अधिक सक्रिय होगी। 17वीं विधानसभा का अनुभव यह बताता है कि लोकतंत्र में चुने हुए प्रतिनिधियों की जवाबदेही केवल सत्ता परिवर्तन तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि उन्हें जनता के मुद्दों पर लगातार काम करना चाहिए।






















