Gopalganj Vidhansabha 2025: बिहार की सियासत में गोपालगंज विधानसभा सीट (निर्वाचन क्षेत्र संख्या 101) हमेशा से ही केंद्र में रही है। यह सीट न सिर्फ गोपालगंज जिले की बल्कि पूरे उत्तर बिहार की राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। यहां का चुनावी इतिहास कांग्रेस, वामपंथ, आरजेडी और बीजेपी—सभी के उतार-चढ़ाव का गवाह रहा है। यही वजह है कि आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर यहां का माहौल पहले से ही गरम है।
चुनावी इतिहास
1952 से लेकर 1980 तक कांग्रेस का एकछत्र दबदबा इस सीट पर कायम रहा। लेकिन 1980 के दशक में समीकरण बदले और सीपीआई के रामजतन पासवान ने जीत दर्ज कर एक नया इतिहास रच दिया। इसके बाद 1990 और 1995 में कांग्रेस के अशोक कुमार लगातार दो बार विधायक बने। साल 2000 में लालू प्रसाद यादव के साले साधु यादव ने आरजेडी से जीतकर सबको चौंका दिया।
गोपालगंज की राजनीति में सबसे अहम मोड़ 2005 के बाद आया, जब भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने यहां अपनी पैठ मजबूत करनी शुरू की। 2005 के अक्टूबर चुनाव से लेकर 2015 तक सुभाष सिंह ने लगातार तीन बार इस सीट पर जीत दर्ज की। हालांकि इसी दौरान रियाजुल हक का नाम भी लगातार चर्चा में रहा। फरवरी 2005 में उन्होंने बीएसपी से जीत दर्ज की थी। इसके बाद वे आरजेडी के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरे और कई बार दूसरे नंबर पर रहे।
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2015 का चुनाव बेहद कड़ा रहा। बीजेपी के सुभाष सिंह ने 78,491 वोट पाकर जीत हासिल की, जबकि आरजेडी के रियाजुल हक मात्र 5,000 वोटों से हार गए। 2020 में फिर मुकाबला दिलचस्प रहा, लेकिन बीजेपी ने बढ़त बनाए रखी। सुभाष सिंह को 77,791 वोट मिले, जबकि बीएसपी के अनिरुद्ध प्रसाद और कांग्रेस के आसिफ गफूर पीछे रह गए। 2022 के उपचुनाव में सुभाष सिंह के निधन के बाद उनकी पत्नी कुसुम देवी ने बीजेपी को जीत दिलाई और पार्टी का वर्चस्व बरकरार रहा।
जातीय समीकरण
गोपालगंज सीट पर जातीय समीकरण बेहद अहम भूमिका निभाते हैं। ब्राह्मण, राजपूत और यादव मतदाता यहां निर्णायक साबित होते हैं, जबकि मुस्लिम मतदाता भी संतुलन बिगाड़ने की ताकत रखते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, इस क्षेत्र की कुल जनसंख्या 4,40,105 है, जिसमें ग्रामीण आबादी 84.7% और शहरी आबादी 15.3% है। अनुसूचित जाति की हिस्सेदारी 11.93% और अनुसूचित जनजाति की 2.05% है। वहीं, 2019 की मतदाता सूची के अनुसार यहां कुल 3,17,140 मतदाता दर्ज हैं।
गोपालगंज विधानसभा सीट पर हर चुनाव में जातीय समीकरण और दलगत रणनीतियों का सीधा असर दिखता है। बीजेपी जहां अपने पारंपरिक वोटबैंक और संगठन की मजबूती पर भरोसा करती है, वहीं आरजेडी और कांग्रेस जैसे दल सामाजिक समीकरण साधकर यहां पकड़ बनाने की कोशिश करते हैं। इस बार का चुनाव और भी दिलचस्प होगा क्योंकि स्थानीय बनाम बाहरी उम्मीदवार, जाति आधारित ध्रुवीकरण और महिला वोटरों की बढ़ती भूमिका—ये सभी कारक निर्णायक साबित हो सकते हैं।






















