Jahanabad Vidhan Sabha 2025: बिहार की राजनीति में जहानाबाद विधानसभा सीट (संख्या 216) का अपना अलग महत्व है। यह सिर्फ जिला मुख्यालय ही नहीं बल्कि पूरे मगध क्षेत्र की सियासी दिशा तय करने वाली सीट मानी जाती है। जहानाबाद लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली यह विधानसभा सीट 1951 से अब तक 17 बार चुनावी रणभूमि बन चुकी है, और हर बार यहां का जनादेश राज्य की राजनीति को नई दिशा देता रहा है।
चुनावी इतिहास
शुरुआती दौर में जहानाबाद कांग्रेस का अटूट किला माना जाता था। पहले नौ चुनावों में से छह पर कांग्रेस का कब्जा रहा, लेकिन 1952 में सोशलिस्ट पार्टी और 1969 में शोसित दल की अप्रत्याशित जीत ने सत्ता के इस समीकरण को झटका दिया। 1985 में कांग्रेस ने आखिरी बार यह सीट जीती, जिसके बाद पार्टी का प्रभाव धीरे-धीरे खत्म होता गया।
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1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव के उभार के साथ ही जहानाबाद की राजनीति में भी आरजेडी (राष्ट्रीय जनता दल) की पकड़ मजबूत होती गई। 2000 से लेकर अब तक इस सीट पर आरजेडी ने छह बार विजय दर्ज की है। दिलचस्प बात यह रही कि 2010 के चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार ने 13 हजार से अधिक वोट काटे, जो आरजेडी को मिले मतों के लगभग आधे थे। इस वोट बंटवारे का फायदा उठाकर जेडीयू ने अप्रत्याशित रूप से जीत हासिल की थी।
वर्तमान में यह सीट लालू परिवार से जुड़ी मानी जाती है, क्योंकि आरजेडी के सुदय यादव — जो लालू प्रसाद यादव के साले हैं — यहां के विधायक हैं। 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने जेडीयू के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन मंत्री कृष्णनंदन वर्मा को कड़ी टक्कर में हराया था। लोजपा प्रत्याशी इंदु देवी कश्यप भी उस चुनाव में 24 हजार से अधिक वोट लेकर तीसरे स्थान पर रही थीं।2025 के चुनावी समर में जहानाबाद का मैदान फिर दिलचस्प बनता दिख रहा है। एक ओर सुदय यादव लालू परिवार की पकड़ और यादव वोट बैंक पर भरोसा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर नीतीश कुमार की जेडीयू और भाजपा गठबंधन अपनी खोई जमीन वापस पाने की पूरी कोशिश में है।
जातीय समीकरण
जहानाबाद की सामाजिक संरचना इस सीट को और भी पेचीदा बनाती है। यहां यादव, भूमिहार, कोइरी, कुर्मी और रविदास जातियों का प्रभाव निर्णायक माना जाता है। अनुसूचित जातियों की आबादी 17.07% है, जबकि मुस्लिम मतदाता लगभग 8.5% हैं। ग्रामीण इलाकों का दबदबा स्पष्ट है — लगभग 74.23% मतदाता गांवों में रहते हैं, जबकि शहरी मतदाता सिर्फ 25.77% हैं। यही वजह है कि ग्रामीण मुद्दे, किसान कल्याण, बेरोजगारी और कानून-व्यवस्था जैसे सवाल यहां के चुनावी विमर्श का केंद्र बने रहते हैं।






















