[Team insi] एक दौर में बंधुआ मजदूरी को लेकर सूबे की बड़ी बदनामी थी। आज भी झारखंड के विभिन्न हिस्सों से यहां के बच्चों, महिलाओं को ले जाकर बेच देने, बंधुगिरी कराने के किस्से आते रहते हैं। जमींदारों के यहां पुश्त दर पुश्त लोग काम करते रहे मजबूरी में। मगर यहां की बात कुछ और है। यहां भी लोग काम कर रहे हैं पुश्त दर पुश्त मगर संतुष्ट होकर। यह है आदित्य बिड़ला ग्रुप का बगड़ू स्थित हिंडालको का बॉक्साइट खदान। एशिया का सबसे पुराना बॉक्साइट खदान है।
स्थानीय लोगों की जीविका का बड़ा साधन है बाक्साइट माइंस
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खदान की शुरुआत 1933 में ही वाल्डविन एंड कंपनी ने बॉक्साइट की थी। आज हिंडालको के अधीन है। काम करने वाले 90 प्रतिशत से अधिक श्रमिक स्थानीय हैं। इन्हें न विस्थापन का एहसास है न ही अपनी मिट्टी और संस्कृति से कटने का। आजादी के पहले ही जमीन खरीद कर यहां खनन का काम शुरू किया गया था। समुद्र तल से कोई एक हजार मीटर से अधिक ऊंचाई पर बसा बगड़ू का बाक्साइट माइंस स्थानीय लोगों की जीविका का बड़ा साधन है। आज जब माइनिंग एरिया में स्थानीय लोगों को काम देने की आवाज चारों तरफ से उठ रही है, विस्थापन आयोग की माग लंबित है ऐसे में यह माइंस अपने आप में एक मॉडल की तरह है।
पैसे खत्म भी हो जायें तो कोई भूखे न सोये
हड़िया-देशी शराब आदिवासियों के रुटीन खान-पान में शामिल है। उनकी संस्कृति का हिस्सा है। ऐसे भी मामले आते रहते हैं जब पारिश्रमिक के पैसे घर का अभिभावक शराब और दूसरी चीजों में खर्च कर देता है। इसे भांपते हुए इस बॉक्साइट खदान के कामगारों को पगार के साथ हर अनाज देने की भी व्यवस्था की गई थी। हर माह 18-20 किलो चावल, 12 किलो गेहूं, छह किलो दाल और चीनी। मकसद यह कि पैसे खत्म भी हो जायें तो कोई भूखे न सोये और यह परंपरा आजादी के पहले से ही चली आ रही है। यहां काम करने वाले लोग बिना विस्थापन अपनी संस्कृति से जुड़कर जॉब सिक्युरिटी के साथ काम कर सकें इसे ध्यान में रखते हुए यह व्यवस्था की गई कि एक कामगार के अवकाश ग्रहण करने, अशक्त होने या मौत होने पर परिवार के दूसरे व्यक्ति को काम पर लगा दिया जाता।
अपनी मिट्टी और संस्कृति से जुड़े हैं आदिवासी
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आजादी के पहले से ही यह परंपरा भी आज तक कायम है। हिंडालको बॉक्साइट के प्रोजेक्ट के प्रमुख बीजेश झा कहते हैं कि लंबे समय से चली आ रही इस परंपरा का बड़ा सकारात्मक असर है। आदिवासी अपनी मिट्टी और संस्कृति से जुड़े हैं। चैती, निजम, अनीता जैसी अनेक महिलाएं हैं जिनके पति, उनके पिता व दादा इसी खदान में काम करते रहे। पुश्त दर पुश्त।
सस्टेनेबल माइनिंग और सीएसआर के तहत हिंडालकों की ओर से दूसरे काम भी किये जा रहे हैं ताकि यहां काम करने वाले लोगों के घरों में अतिरिक्त आय पहुंचे। उनकी महिलाओं, ग्रामीणों को मछली पालन, बत्तख पालन, खेती आदि से जोड़ा गया है। खनन के बाद की जमीन को समतल कर उसके बागवानी, खेती कराई जा रही है। करीब के दो गांवों में मशरूम की खेती हो रही है।
पहाड़ पर तालाब तो कल्पना से परे है
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दार्जीलिंग से चाय के 20 हजार पौधे मंगवाये गये हैं। जल्द ही यहां व्यावासयिक रूप से इसकी खेती शुरू होगी। बॉक्साइट निकालने के वाद जो ज्यादा गहरे इलाके रहे उसे व्यवस्थित कर तालाब का रूप दे दिया गया है। पांच बड़े-बड़े तालाब हैं। जिसमें दो में सेल्फ हेल्प ग्रुप की मदद से मछली और बत्तख पालन का काम हो रहा है। पहाड़ पर तालाब तो कल्पना से परे है। जल स्रोतों को चैनलाइज कर इनकें बारिश के पानी का संरक्षण किया जाता है। जो नीचे के इलाके में खेती के भी काम आता है। जल स्तर भी कायम है। तालाब के किनारे ही बांस के दो कॉटेज यानी बने हैं। आधुनिक सुविधाओं से युक्त। विमर्श-बैठकी के लिए आदिवासी परंपरा वाले धुमकुड़िया का भी यहीं पर निर्माण किया गया है।
परिसर में तारामंडल की तरह डोम का निर्माण किया गया है
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माइनिंग के बाद खाली जमीन को समतल साढ़े पांच हेक्टेयर जमीन में बिरसा उपवन नाम से बायोडाइवर्सिटी पार्क बनाया गया है। तालाबों और पार्क को पिछले तीन सालों में विकसित कर खूबसूरत आकार दिया गया है। बिरसा उपवन में भांति-भांति के फूल, औषधीय, नक्षत्र आधारित पौधे हैं। 25 तरह के गुलाबों की वेरायटी और क्यारी में स्ट्राबेरी के फल आपका मन मोह लेंगे। इसी परिसर में तारामंडल की तरह डोम का निर्माण किया गया है। इस डोम में खनन की तकनीक पर आधारित फिल्म देख सकते हैं। जंगल के बीच से पहाड़ की खड़ी चढ़ाई और ऊपर में तालाब और खूबसूरत पार्क, प्रकृति को पसंद करने वाले पर्यटकों के लिए नया ठिकाना के रूप में है।