नए संसद भवन के उद्घाटन में शक्ति प्रदर्शन से चूके विपक्ष ने न हार मानी है और न ही हथियार डाले हैं। विपक्ष की अगुवाई करने को बेकरार जदयू ने भाजपा के विरोधी दलों की संयुक्त बैठक का दिन तय कर दिया है। 12 जून को यह बैठक होगी, जिसमें भाजपा विरोध की रणनीति बनेगी। दर्जन भर से अधिक दलों के शामिल होने की उम्मीद जताई जा रही है। बैठक की डेट तय होना और बैठक के हो जाने तक, सबकुछ जदयू की मंशा के अनुरुप दिख रहा है। लेकिन क्या अब तक जो सब ठीक हो रहा है, वो आगे भी ठीक होने की गारंटी है? जवाब सबके अपने अपने हो सकते हैं। सबका अलग तर्क हो सकता है। लेकिन इतना तो तय है कि बैठक के दिन के लिए जदयू और इसके सर्वमान्य नेता नीतीश कुमार के पास चुनौतियों का पिरामिड बना हुआ है। कुछ चुनौतियां छोटी हैं, कुछ मीडियम साइज की तो कुछ इतनी बड़ी हैं कि उनसे पार पाना असंभव सा दिखता है।
पटना में विपक्षी दलों की महा बैठक का डेट तय, जून महीने होगा महासियासी जुटान
कांग्रेस को बैठक में शामिल कराना
पटना में होने वाली विपक्षी दलों की संयुक्त बैठक में कांग्रेस सबसे महत्वपूर्ण फैक्टर है। कर्नाटक जीत के बाद कांग्रेस उत्साहित होने के साथ गंभीर मुद्रा में भी है। यानि वो सुन तो सबकी रही है, कर अपने मन की रही है। ऐसे में जदयू और नीतीश कुमार अगर कांग्रेस को इस बैठक में लाने में सफल होते हैं तो भी सिर्फ उतने से बात नहीं बनेगी। क्योंकि कांग्रेस के पास ताकत दूसरे किसी भी भाजपा विरोधी दल से अधिक है। कई राज्यों में उसके पास वोट्स हैं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस को कॉम्प्रोमाइज के लिए मनाना, बैठक की बड़ी सफलता हो सकती है। लेकिन फिलहाल तो बड़ी चुनौती ये है कि कांग्रेस की ओर से मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी इस बैठक में शामिल हों।
कांग्रेस के होते हुए आम आदमी पार्टी को शामिल कराना
जदयू और नीतीश कुमार की पहली चुनौती कांग्रेस को साधने की है। इस चुनौती के पूरी होने में, अधिक मुश्किल नहीं दिख रही है क्योंकि कांग्रेस ने नीतीश कुमार के प्रयासों को पहले ही सराहा है। लेकिन कांग्रेस से हां करवाने के बाद नीतीश कुमार की सबसे बड़ी मुश्किल वो आम आदमी पार्टी है, जिसने दो राज्यों में कांग्रेस से सत्ता छीनी है। दिल्ली और पंजाब में सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी जितनी दूर भाजपा से है, उतनी ही दूर कांग्रेस के साथ भी दिख रही है। ऐसे में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को एक छतरी के नीचे लाना, सबसे बड़ी चुनौती है। कांग्रेस के बिना तो विपक्षी एकता का ताना बाना अधूरा रहेगा ही, आम आदमी पार्टी को भी इग्नोर करने का खतरा विपक्षी खेमा नहीं उठा सकता।
ममता बनर्जी के तेवर को संभालना
जब जब विपक्षी एकता की बात होती है तो भाजपा के नेता यही कहते हैं कि ये पार्टियां एक साथ नहीं रह सकतीं। वो भी इस चुनौती को समझते हैं कि एक साथ रहने में सबको दिल बड़ा दिखाना होगा, जो जल्दी हो नहीं पाता। विपक्षी एकता के बैठक की तीसरी चुनौती हैं ममता बनर्जी, जिनकी सार्वजनिक सलाह पर ही यह बैठक हो रही है। ममता कहती हैं कि वो कांग्रेस के साथ आने को तैयार हैं, बशर्ते कांग्रेस पश्चिम बंगाल में उनके खिलाफ न आए। कर्नाटक जीत से उफनाई कांग्रेस के बड़े बंगाली नेता अधीर रंजन चौधरी को तो जैसे डंक सा लगा। चौधरी ने साफ कह दिया कि विपक्ष की चौधरी तो कांग्रेस है ही और बंगाल में भी कांग्रेस पूरी मजबूती से लड़ेगी। अब कांग्रेस के इस तेवर के बाद विपक्षी एकता पर ममता के तेवर संभालना, जदयू और नीतीश कुमार की बड़ी चुनौती होगी।
पार्टियां एक मंच पर आ गईं तो नेता कौन?
विपक्षी एकता की सबसे बड़ी चुनौती, नेता के नाम पर आकर टिक जाती है। दरअसल, इस अनेकता में एकता वाले गठबंधन में सभी नेता ही हैं। हर पार्टी अपने राज्य में या तो सत्ता में है या फिर विपक्ष का मुख्य चेहरा है। तो नेता के चयन की जिम्मेदारी सबसे बड़ी होगी। नेता का पद कांग्रेस को चला जाता है तो बाकि दल साथ क्यों देंगे? ममता नेता बनतीं हैं तो कांग्रेस इस गठबंधन में क्या कर रही है? जदयू एक छतरी में सबको ला सकता है तो उसके नेता नीतीश कुमार विपक्ष का चेहरा क्यों नहीं बन सकते? ऐसे अनसुलझे सवालों की एक बड़ी फेहरिस्त है, जो बैठक के पहले, बैठक के दौरान और बैठक के बाद भी चर्चा में बनी रहेगी।
लड़ाई का फॉर्मूला तय करना
विपक्षी एकता को लेकर बैठक का मुख्य एजेंडा ही है कि भाजपा के खिलाफ 2024 में चुनाव कैसे लड़ें? ऐसे में लड़ाई का फॉर्मूला बैठक में तय हो जाए, यह जरुरी होगा। क्योंकि बार बार ऐसी बैठकों के होने की उम्मीद कम रहती है। फॉर्मूला तय करना एक चुनौती इसलिए है क्योंकि कर्नाटक चुनाव की संजीवनी तो कांग्रेस को मिली, लेकिन उसके सुगंध में पूरा विपक्ष लाहालोट है। इसमें वो आम आदमी पार्टी भी शामिल है, जो कर्नाटक की 209 सीटों पर उम्मीदवार उतारकर भी, सिर्फ 0.58 फीसदी वोट हासिल कर सकी। इस लिस्ट में वो जदयू भी शामिल है, जो बिहार में अनवरत 18 साल से शासन तो कर रही है लेकिन विधानसभा में तीसरे नंबर की पार्टी है। जिस राजद के साथ बिहार में पिछले 8 साल से सत्ता आंखमिचौली का खेल, खेल रही है, कर्नाटक में भाजपा की हार से वो भी फूल कर कुप्पा बन गई है। ये अलग बात है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में राजद का कोई उम्मीदवार लोकसभा नहीं पहुंच पाया था।
इन सारी बातों के बावजूद बैठक में अगर कोई फॉर्मूला तय हो जाता है कि लड़ाई कैसे लड़ी जाए, सीटों का बंटवारा कैसे हो और इन बातों पर सभी पार्टियां एकमत से सहमत हो जाती हैं तो निश्चित तौर पर नीतीश कुमार की कोशिशों को पहली सफलता मिल जाएगी।